بلغه عنه أنه كان مريضا :
بنفسي وقل بها
أفتديك |
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( لو أن مولى بعبد فدي ) |
ويفديك ما منك
قد نلته |
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جميعا وما ملكته
يدي |
وجودك علة هذا
الوجود |
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وجودك بلغة من
يجتدي |
وشخصك انسان عين
الزمان |
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ولولاك ضل فلم
يهتد |
على مضض كم طويت
الضلوع |
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بليلة ذي العائر
الارمد |
وما بين جنبي
ذات الوقود |
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يشب سناها الى
الفرقد |
فلو أنها أضرمت
للخليل |
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ونودي ـ يا نار ـ
لم تبرد |
فأجابه سيدنا المترجم :
أبا المرتضى قد
غبت عني بساعة |
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بها الموت أدنى
من جبيني الى نحري |
فكم ليلة قد
بتها متيقنا |
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بأني ألاقي في
صبيحتها قبري |
أكابد من طول
الليالي شدائدا |
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كأن الليالي قد
خلقن بلا فجر |
على حالة لم أدر
من كان عائدي |
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هناك ولم أشعر
بزيد ولا عمرو |
وما طلبت نفسي
سوى أن أراكم |
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وليس سوى ذكراكم
مر في فكري |
وله :
الطرف بعدك لا
ينفك في سهر |
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والقلب بعدك لا
ينفك في شغل |
يعقوب حزنك
أبلاه الضنى فعسى |
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من رد يوسف لطفا
أن يردك لي |
وكتب الى أخويه العلامتين محمد والحسين بعد شفائه من مرضه :
أيا أخوي الذين
هما |
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أعز على النفس
من ناظري |
عذرتكما حيث لم
تحضرا |
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ولم يك من غاب
كالحاضر |
لقد بطشت بي كف
السقام |
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على غفلة بطشة
القادر |