يرى في النوم رمحك في كلاه |
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ويخشى أن يراه في السّهاد ٣٠٨ |
لم تلق قوما هم شرّ لإخوتهم |
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منّا عشيّة يجري بالدم الوادي ٢٢١ |
وغيري يأكل المعروف سحتا |
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ويشحب عنده بيض الأيادي ٦٢ |
قلت : ثقّلت إذ أتيت مرارا |
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قال : ثقّلت كاهلي بالأيادي ٢٨٧ |
الله يعلم ما تركت قتالهم |
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حتّى علوا فرسي بأشقر مزبد ٤٣ |
محاسن أصناف المغنّين جمّة |
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وما قصبات السّبق إلا لمعبد ٣٠٣ |
أجاد طويس والسّريجيّ بعده |
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وما قصبات السّبق إلّا لمعبد ٣٠٣ |
كدبابيس عسجد |
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قضبها من زبرجد ١٦٨ |
ليس على الله بمستنكر |
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أن يجمع العالم في واحد ٣١١ |
كريم متى أمدحه أمدحه والورى |
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معي ، وإذا ما لمته لمته وحدي ١٦ |
وطول مقام المرء في الحيّ مخلق |
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لديباجتيه فاغترب تتجدّد ١٦٥ |
إن تلقني لا ترى غيري بناظرة |
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تنس السّلاح وتعرف جبهة الأسد ٢٧٥ |
فإن شئت لم ترقل وإن شئت أرقلت |
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مخافة ملويّ من القدّ محصد ٩١ |
صبا ما صبا حتى علا الشيب رأسه |
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فلما علاه قال للباطل : ابعد ٤٣ |
تطاول ليلك بالأثمد |
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ونام الخليّ ولم ترقد ٦٨ |
أنا الرجل الضّرب الذي تعرفونه |
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خشاش كرأس الحيّة المتوقّد ٢٤٣ |
لو شئت لم تفسد سماحة حاتم |
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كرما ، ولم تهدم مآثر خالد ٩١ |
وقوفا بها صحبي عليّ مطيّهم |
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يقولون : لا تهلك أسى وتجلّد ٣٠٤ |
فإن أنا لم يحمدك عنّي صاغرا |
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عدوّك ؛ فاعلم أنني غير حامد ٢٤٥ |
تزور فتى يعطي على الحمد ماله |
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ومن يعط أثمان المكارم يحمد ١٥٦ |
وبات ، وباتت له ليلة |
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كليلة ذي العائر الأرمد ٦٨ |
فإني رأيت الشمس زيدت محبّة |
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إلى الناس أن ليست عليهم بسرمد ١٦٥ |
كلّنا باسط اليد |
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نحو نيلوفر ندي ١٦٨ |