حبر أبي حفص لعاب الليل |
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يسيل للإخوان أيّ سيّل ١٨١ |
وما يك فيّ من عيب فإنّي |
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جبان الكلب مهزول الفصيل ٢٤٣ |
قافية الميم
الميم الساكنة
النّشر مسك ، والوجوه دنا |
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نير وأطراف الأكفّ عنم ١٨٩ |
إذا أيقظتك حروب العدى |
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فنبّه لها عمرا ثمّ نم ٢٥٥ |
الميم المفتوحة
سرق العيد كأن |
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العيد أموال اليتامى ٢٦٤ |
غالطتني إذ كست جسمي الضّنا |
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كسوة عرّت من اللحم العظاما ٢٨٧ |
أترى القاضي أعمى |
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أم تراه يتعامى؟ ٢٦٤ |
فما أنت إلا البدر ، إن قلّ ضوؤه |
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أغبّ ، وإن زاد الضياء أقاما ١٦٧ |
ثم قالت : أنت عندي في الهوى |
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مثل عيني ، صدقت ، لكن سقاما ٢٨٧ |
رمزت إليّ مخافة من بعلها |
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من غير أن تبدي هناك كلامها ٢٤٨ |
أراك إذا أيسرت خيمت عندنا |
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مقيما ، وإن أعسرت زرت لماما ١٦٧ |
يريد الجاهلون ليطفئوه |
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ويأبى الله إلا أن يتمّه ٣١٥ |
أبكيكما دمعا ، ولو أنّي على |
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قدر الجوى أبكي بكيتكما دما ٢٦٣ |
ولله صعلوك يساور همّه |
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ويمضي على الأحداث والدّهر مقدما ٤٦ |
ترى رمحه ، ونبله ، ومجنّه |
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وذا شطب غضب الضّريبة مخذما ٤٦ |
ومن كان بالبيض الكواعب مغرما |
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فما زلت بالبيض القواضب مغرما ٢٩٤ |
أقول له : ارحل ، لا تقيمنّ عندنا |
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وإلّا فكن في السّرّ والجهر مسلما ١٢٢ |
فذلك إن يهلك فحسنى ثناؤه |
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وإن عاش لم يقعد ضعيفا مذمّما ٤٦ |
إذا ما رأى يوما مكارم أعرضت |
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تيمم كبراهنّ ، ثمت صمما ٤٦ |