رضيت ولولا ما
علمتم من الجوى |
|
لما كنتُ أرضى
منكم بلمام |
واني لأرضى أن
اكون بأرضكم |
|
على أنني منها
استفدت سقامي |
وقوله :
بيني وبين
عواذلي |
|
في الحب أطراز
الرماح |
أنا خارجي في
الهوى |
|
لا حكم إلا
للملاح |
وقوله :
قل لمن خده من
اللحظ دامٍ |
|
رقّ لي من جوانح
فيك تُدمى |
يا سقيم الجفون
من غير سقم |
|
لا تلمني إن
مُتّ منهن سقما |
أنا خاطرت في
هواك بقلب |
|
ركب البحر فيك
إما وإما |
وقوله من قصيدة :
قل لمعزٍّ
بالصبر وهو خليٌ |
|
وجميل العذول
ليس جميلا |
ما جهلنا أن
السلو مريح |
|
لو وجدنا الى
السلو سبيلا |
وقوله من مقطوع في الشيب :
يقولون لا تجزع
من الشيبب ضِلّة |
|
وأسهمه إياي
دونهم تُصمي |
وقالوا أتاه
الشيب بالحلم والحجى |
|
فقلتُ بما يَبرى
ويعرق من لحمي |
وما سرني حلم
يفيء الى الردى |
|
كفاني ما قبل
المشيب من الحلم |
اذا كان يعطيني
من الحزم سالباً |
|
حياتي فقل لي
كيف ينفعني حزمي |
وقد جرّبت نفسي
الغداة وقاره |
|
فما شدّ من وهنى
ولا سدّ من ثلمي |
وإني مذ أضحى
عذاري قرارُه |
|
أُعادُ بلا سُقم
وأُجفى بلا جُرم |
وسيّان بعد
الشيب عند حبائبي |
|
وقفن عليه أم
وقفن على رسمي |