ما بين حورٍ
كالنجوم تزينت |
|
منها القلائد ،
للبدور حواكي |
هيف الخصور من
القصور بدت لنا |
|
منها الأهلة لا
من الأفلاك |
يجمعن من مرح
الشبيبة خفّة الـ |
|
ـمتغزّلين وعفّة
النساك |
ويصدن صادية
القلوب بأعينٍ |
|
نُجلٍ كصيد
الطير بالإشراك |
من كل مخطفة
الحشا تحكي الرشا |
|
جيداً وغصن
البان لين حراك |
هيفاء ناطقة
النطاق تشكياً |
|
من ظلم صامتة
البُرين ضناك (١) |
وكأنّما من
ثغرها من نحرها |
|
در تباكره بعود
أراك |
عذبُ الرُضاب
كأنّ حشو لئاتها |
|
مسكاً يعلّ به
ذرى المسواك |
تلك التي ملكت
عليّ بدلّها |
|
قلبي فكانت أعنف
الملاك |
إن الصبى يا نفس
عزّ طلابه |
|
ونهتك عنه
واعظات نُهاك |
والشيب ضيف لا
محالة مؤذنٌ |
|
برداك فاتبعي
سبيل هداك |
وتزوّدي من حبّ
آل محمّد |
|
زاداً متى
أخلصته نجّاك |
فلنعم زاداً
للمعاد وعدّةٌ |
|
للحشر إن علقت
يداك بذاك |
وإلى الوصيّ
مهمُ أمرك فوّضي |
|
تَصِلي بذاك إلى
قصيّ مناك |
وبه ادرئي في
نحر كل ملمة |
|
وإليه فيها
فاجعلي شكواك |
وبحبّه فتمسكي
أن تسلكي |
|
بالزيغ عنه
مسالك الهلاك |
لا تجهلي وهواه
دأبك فاجعلي |
|
أبداً وهجر عداه
هجر قلاك |
فسواء انحرف
امرؤ عن حبّه |
|
أو بات منطوياً
على الإشراك |
وخذي البرائة من
لظى ببراءة |
|
من شانئيه
وأمحضيه هواك |
وتجنّبي إن شئت
أن لا تعطبي |
|
رأي ابن سلمى
فيه وابن صهاكِ |
واذا تشابهت
الأمور فعوّلي |
|
في كشف مشكلها
على مولاك |
خير الرجال وخير
بعل نساءها |
|
والأصل والفرع
التقي الزاكي |
وتعوّذي بالزهر
من أولاده |
|
من شرّ كل مضلّل
أفّاك |
__________________
١ ـ البرين : بالضم جمع بره : الخلخال.