وقال يرثي الحسين عليهالسلام :
أتشبيبا وقد لاح
المشيبُ |
|
وشيب الرأس
منقصة وعيبُ |
بياض الشيب عند
البيض عار |
|
وداءٌ ما له
أبداً طبيب |
وما الانسان قبل
الشيب إلا |
|
سديد قوله سهم
مصيبُ |
فان نزل المشيب
فذاك وعظ |
|
نذير بعده الحتف
القريب |
وليس اللهو يجمل
والتصابي |
|
اذا ولّى الشباب
ولا يطيب |
فكفي هذه واليك
عني |
|
فما يغترّ
بالدنيا لبيب |
دعيني من دلالك
والتمني |
|
فلي جدّ تولاه
الشحوبُ |
ولي بالغاضرية
عنك شغل |
|
باشجان لها كبدي
تذوبُ |
وذكرى للحسين
بها فؤادي |
|
يشب لظى واجفاني
تصوب |
لما قد ناله من
آل حرب |
|
وما قامت لهم
معه حروبُ |
فقد كانوا خداعا
كاتبوه |
|
بكتبٍ شرحها عجب
عجيب |
بانك انت سيدنا
فعجّل |
|
فقد حنت لرؤيتك
القلوب |
وليس لنا إمام
فيه رشد |
|
سواك ليهتدي فيه
المريب |
ولكن أضمروا
بغضاً وحقدا |
|
ضغائن في الصدور
لها لهيب |
تشبّ سعيرها بدر
واحد |
|
وخيبر والأسارى
والقليب |
ويذكي النهر وان
لها لظاها |
|
وصفين وهاتيك
الخُطوب |
فتلك وقائع قتلت
رجال |
|
وضيم بهن شبان
وشيب |
فلما جاء محتملا
اليهم |
|
وناداهمه عصوه
ولم يجيبوا |
فقال لهم ألا يا
قوم خنتم |
|
وكان الغدر فيكم
والشغوب |
أتتنى كتبكم
فأجبت لمّا |
|
دعوتم ضُرّعاً
وأنا المجيب |
فخلوا إن
تخاذلتم سبيلي |
|
فان الأرض تمنع
مَن يجوب |
فقالوا لا سبيل
لما تراه |
|
ولستَ تعود عنا
أو تؤب |
ومالوا بالاسنة
مشرعات |
|
تسدّ سبيله مها
الكعوب |