وله :
هم نصب عيني :
أنجدوا أو غاروا |
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ومنى فؤادي :
أنضفوا أو جاروا |
وهم مكان السر
من قلبي وإن |
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بعدت نوى بهمُ
وشطَّ مزار |
فارقتهم وكأنهم
في ناظري |
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مما تُمثّلهم لي
الأفكار |
تركوا المنازل
والديار فما لهم |
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إلا القلوب
منازلٌ وديار |
واستوطنوا البيد
القفار فأصبحت |
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منهم ديار الإنس
وهي قفار |
فلئن غدت مصر
فلاة بعدهم |
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فلهم بأجواز
الفلا أمصار |
أو جاوروا نجداً
فلي من بعدهم |
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جاران : فيض
الدمع والتذكار |
ألفوا مواصلة
الفلا والبيد مذ |
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هجرتهم الأوطان
والأوطار |
بقلائص مثل
الأهلة عندما |
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تبدو ولكن فوقها
أقمار |
وكانما الآفاق
طراً أقسمت |
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ألا يقر لهم
عليه قرار |
والدهر ليل مذ
تناءت دارهم |
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عني وهل بعد
النهار نهار |
لي فيهم جار يمت
بحرمتي |
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إن كان يحفظ
للقلوب جوار |
لا بل أسير في
وثاق وفائه |
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لهم فقد قتل
الوفاء إسار |
ومنها :
أمنازل الأحباب
غيّرك البلى |
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فلنا اعتبار فيك
واستعبار |
سقياً لدهر كان
منك تشابهت |
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أوقاته فجميعه
أسحار |
قصرت لي الأعوام
فيه فمذ نأوا |
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طالت بي الأيام
وهي قصار |
يا دهر لا يغررك
ضعف تجلدي |
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إني على غير
الهوى صبَّار |
وله :
كأن قدودهم
أنبتت |
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على كثب الرمل
قضبانها |
حججنا بها كعبة
للسرور |
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ترانا نمسِّح
أركانها |
فطوراً أعانق
أغضانها |
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وطوراً أنادم
غزلانها |