وآل رسول الله
في دار غربة |
|
واّل زياد في
القصور نزول |
وآل عليّ في
القيود شواحب |
|
إذا أنّ مأسور
بكته ثكول |
وآل أبي سفيان
في عزّ دولة |
|
تسير بهم تحت
البنود خيول |
مصاب أصيب الدين
منه بفادح |
|
تكاد له شمّ
الجبال تزول |
عليك ابن خير
المرسلين تأسفى |
|
وحزني وإن طال
الزمان طويل |
جللت فجلّ الرزؤ
فيك على الورى |
|
كذا كلّ رزء
للجليل جليل |
فليس بمجد فيك
وجدي ولا البكا |
|
مفيد ولا الصبر
الجميل جميل |
إذا خفّ حزن
الثاكلات لسلوةٍ |
|
فحزني على مرّ
الدهور ثقيل |
وان سأم الباكون
فيك بكاءهم |
|
ملالاً فإنّى
للبكاء مّطيل |
فما خفّ من حزني
عليك تأسفى |
|
ولا جفّ من دمعي
عليك مسيل |
وينكر دمعي فيك
من بات قلبه |
|
خلياً وما دمع
الخليّ هطول |
وما هي إلا فيك
نفس نفيسة |
|
يحللها حرّ
الأسى فتسيل |
تباين فيك
القائلون فمعجب |
|
كثيرٌ وذو حزن
عليك قليل |
فأجرُ بني
الدنيا عليك لشأنهم |
|
دنيّ وأجر
المخلصين جزيل |
فإن فاتني إدراك
يومك سيدي |
|
وأخرني عن نصر
جيلك جيل |
فلي فيك أبكار
لوفق جناسها |
|
أصول بها
للشامتين نصول |
لها رقّة
المحزون فيك وخطبها |
|
جسيم على أهل
النفاق مهول |
يهيم بها سر
الوليّ مسرّة |
|
وينصب منها
ناصبٌ وجهول |
لها في قلوب
الملحدين عواسل |
|
ووقع نصول ما
لهنّ نصول |
بها من « عليّ »
في علاك مناقبٌ |
|
يقوم عليها في
الكتاب دليل |
ينمّ عن الأعراف
طيّب عرفها |
|
فتعلقها
للعاقلين عقول |