لك المقام الذي
ما زال مشتملا |
|
على ملائكة غر
واملاك |
يقبلون ضريحاً
ضم ناسكة |
|
ترعرعت بين زهاد
ونساك |
يبكون من خيفة
والثغر مبتسم |
|
من المسرة يا
للضاحك الباكي |
ويصدرون وفي
أيديهم سبب |
|
من المحامد
موصول بذكراك |
أولاك مولاك
مجداً لا يرام فما |
|
أحراك بالغاية
القصوى وأولاك |
لجيد مجدك أطواق
الثنا خلقت |
|
جل الذي بجلى
الفضل حلاك |
طوبى لمن شم
يوماً من حماك شذا |
|
لأن من جنة
الفردوس رياك |
اني لاغبط
مخدومين قد خدما |
|
مثواك يا قدس
الرحمن مثواك |
هما لعمر العلى
بدران تمهما |
|
وحسن حالهما من
بعض حسناك |
من كالحسين وقد
أمسيت عمته |
|
فلو دعوت أمس
الناس لباك |
ومن يداني عليا
وهو منتسب |
|
للمرتضى وهو
مولاه ومولاك |
تقاسما خطط
العلياء وارتضعا |
|
ثدي العلى حافلا
في ظل مغناك |
غيثان لا يعدم
المضطر غوثهما |
|
لأن جودهما من
فيض جدواك |
وحسب هذين فخراً
أن ذكرهما |
|
يا درة التاج
مقرون بذكراك |
اليك يا مفزع
الراجي مددت يدي |
|
وأنت أدرى بما
يرجوه مولاك |
وكيف لا يطلب
الدنيا وضرتها |
|
مولاكم وهما
أدنى عطاياك |