الأريحيّ إلى السماحة مثل من |
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يرتاح للماء المروّق صادي |
والمعتلي فوق السّماك أرومة |
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والمزدري في الحلم بالأطواد |
قاض لدن يمّمت عدل قضائه |
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لم أعط جور الحادثات قيادي |
متواضع لله يرفع قدره |
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عن أن يقاس بسائر الأمجاد |
ما قلد الأحكام دون تقى وهل |
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يتقلّد الصّمصام دون نجاد |
طلق المحيّا واليدين إذا احتبى |
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وإذا حبا رحب النّدى والنّاد |
لو ألبس الليل البهيم خلاله |
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لم تشتمل أرجاؤه بحداد |
طاب الثناء تصوّغا منه على |
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حلو الشمائل طيّب الميلاد |
ومنها : [الكامل]
يا غرّة الزّمن البهيم وعصمة ال |
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رّجل الطريد ونجعة المرتاد |
خذ من ثنائي ما يكاد نظامه |
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ينسي فصاحة يعرب وإياد |
ومنها : [الكامل]
وبنو الزمان وإن بدا ملق لهم |
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أضغانهم كالجمر تحت رماد |
لا غرو أنّك قد نبّت خلالهم |
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قد ينبت النّوار بين قتاد |
عجبا لمن قد رام سبقك منهم |
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أنّى العيس سبق جواد |
جلّ اعتلاؤك أن تساجله علا |
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من ذا يضاهي لجّة بثماد |
لا زلت ترفل في سوابغ أنعم |
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فضفاضة الأذيال والأبراد |
وبقيت زينا للبلاد ورفعة |
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إن الصوارم زينة الأغماد |
وقوله : [الكامل]
وتنفّست وقد استحرّ تنهّدي |
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فوشى بذاك النّدّ هذا المجمر |
وقوله : [البسيط]
علوت كلّ عظيم الشأن مرتبة |
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إن الخلاخيل تعلوها التقاصير |
وقوله : [الكامل]
ومرنّة قدحت زناد صبابتي |
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والبرق يقدح في الظلام شراره |
ورقاء تأرق مقلتي لبكائها |
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ليلا إذا ما هوّمت سمّاره |
إيه بعيشك يا حمامة خبّري |
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كيف الكثيب ورنده وعراره |
أترنّحت بتنفّسي أثلاثه |
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أم أينعت بمدامعي أزهاره |