وعشيّة لبست رداء شحوبها |
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والجو بالغيم الرقيق (١) مقنّع |
بلغت بنا أمد السرور تألّفا |
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والليل نحو فراقنا يتطلّع |
فابلل بها زمن الغبوق فقد أتى |
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من دون قرص الشمس ما يتوقّع |
سقطت ولم تملك يمينك ردّها |
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فوددت يا موسى بأنّك (٢) يوشع |
وقوله :
يا راكبا واللّوى شمال |
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عن قصده والعصا يمين |
نجدا على أنّه طريق |
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تقطعه للصّبا عيون |
وحيّ عنّي إن جزت حيّا |
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أمضى مواضيهم الجفون |
وقل على أيكة بواد |
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للورق في قضبها حنين |
يا أيك لا يدّعي حمام |
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ما يجد الشّيّق الحزين |
لو أنّ بالورق ما بقلبي |
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لاحترقت تحتها الغصون |
وقوله (٣) :
وذي حنين يكاد شجوا (٤) |
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يختلس الأنفس اختلاسا |
إذا (٥) غدا للرياض جارا |
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قال لها المحل لا مساسا |
تبسّم الزّهر حين يبكي |
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بأدمع ما رأين باسا |
من كلّ جفن يسلّ سيفا |
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صار له غمده رئاسا |
وقوله : [مجزوء الكامل]
ذات الجناح تقلّبي |
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بجوانح القلب الخفوق |
وتساقطي بالسّرحتي |
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ن تساقط الدّمع الطّليق |
وسليهما بأرقّ من |
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عطفي قضيبهما الوريق |
هل بعدنا ممتّع |
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في مثل ظلّهما العتيق |
وإذا صدرت مبينة |
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لتبلّغي النّبأ المشوق |
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(١) في المعجب : الدقيق.
(٢) في المعجب : لو أنك.
(٣) الأبيات في المعجب للمراكشي (ص ١٥٨).
(٤) في المعجب : شوقا.
(٥) في المعجب : لما.