وقوله : [الوافر]
ومقلة شادن أودت بنفسي |
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كأنّ السّقم لي ولها لباس |
يسلّ اللحظ منها مشرقيا |
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لقتلي ثم يغمده النّعاس |
وقوله (١) : [الكامل]
مطلول أملود الصّبا ميّاسه |
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خلع الشباب عليه فهو لباسه |
بدر وأكناف الحشا آفاقه |
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ظبي وأحناء الضلوع كناسه |
لم ندر (٢) إذ جاءت بنكهته الصّبا |
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أتضوّع الكافور أم أنفاسه |
ولقد عيينا إذ توالى سكره |
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ألحاظه مالت بنا أم كاسه |
للحسن مرقوما على وجناته |
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سطر وصفحة خدّه قرطاسه |
إن خالفت تلك المحاسن فعله |
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فالسيف يطبع من سواه رئاسه |
وقوله : [الرمل]
يا ضياء الصّبح تحت الغبش |
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أطراز فوق خدّيك وشي |
أم رياض دبّجتها مزنة |
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وبدا الصّدغ بها كالحنش |
لست أدري أسهام اللّحظ ما |
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أتّقى أم لدغ ذاك الأرقش |
ربّ ليل بتّه ذا أرق |
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ليس إلا من قتاد فرشي |
سابحا في لجّة الدمع ول |
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كنّني أشكو عليل العطش |
وبروق الليل في أسدافه |
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كسيوف بأكفّ الحبش |
وسهيل خافق في أفقه |
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كضرام بيدي مرتعش |
وسماء الله تبدي قمرا |
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واضح الغرّة كابن القرشي |
وقوله : [الكامل]
بأبي وغير أبي أغنّ مهفهف |
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مجدول ما تحت الوشاح خميصه |
لبس الفؤاد ومزّقته جفونه |
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فأتى كيوسف حين قدّ قميصه |
وقوله (٣) : [الوافر]
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(١) الأبيات في السفينة ببعض الاختلاف عمّا هنا.
(٢) في السفينة : لم أدر.
(٣) الأبيات في السفينة.