وأبعثوها صواهلا
عابسات |
|
يملأ الجو نقعها
بسدوف |
لتروا نسوة لكم
حاسرات |
|
جشمتها الاعداء
كل تنوف |
ولكم أوقفوا
بدار ابن هند |
|
من ترى الموت
دون ذل الوقوف |
وقال من قصيدة :
أيا مدلجا
بالذميل العنيف |
|
خفافا شأت
بالمسير الرياحا |
تجوف الفلا
سبسبا سبسبا |
|
وتقطعهن بطاحا
بطاحا |
أنخها مريحا
بوادي الغري |
|
مثيرا لديه بكا
ونواحا |
وقل يا مبدد شمل
الصفوف |
|
اذا ازدحمت يوم
حرب كفاحا |
لعلك لم تدر يوم
الطفوف |
|
غداة غدى دمكم
مستباحا |
وأعظم ما يقرح
المقلتين |
|
ويدمي الفؤاد
شجى وانقراحا |
مجال الخيول على
ابن النبي |
|
ترض قراه غدوا
رواحا |
وعترته حوله
كالنجوم |
|
ينبعث الليل
منها صباحا |
وقته الردى فتية
في النزال |
|
تصافح دون
الحسين الصفاحا |
ترى البيض بيضا
وسمر الصعاد |
|
قدودا وكأس
المنية راحا |
وراحت تخوض غمار
الردى |
|
وتحسب جد
المنايا مزاحا |
تلقى السهام
ببيض الوجوه |
|
بيوم به صائح
الموت صاحا (١) |
وقال :
أبدار وجرة أم
على جيرون |
|
عقلوا خفاف
ركائب وضعون |
ومنها :
ولرب قائلة ومن
عبراتها |
|
ثقلت جوى قطع
السحاب الجون |
الجيرة تبدي
الجوى أم أربع |
|
ورمت بأكناف
اللوى وحجون |
__________________
١ ـ عن مخطوط الشيخ عبد المولى الطريحي.