وإن شام لحظ العين بارق ثغره |
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يجود بغيث الدمع من ذلك الومض |
إذا ما رنا نحوي بجارح لحظه |
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حسبت فؤادي نهب أجدل منقض |
وكنا تقاضينا على دين قبلة |
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فأرهنته قلبي الشجيّ ولم يقض |
وما طلني في دينه وهو موسر |
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وظلم ذوي الإيسار يمطل بالقرض |
وقفت له عكس اسمه متذللا |
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وأفرشت في ممشاه خدي على الأرض |
ولم أنس لما عاقرتني بكأسها |
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يد البين حتى كدت من سكرتي أقضي |
مناشدتي إياه وقت وداعنا |
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وصيّب دمعي فوق خدي مرفض |
أمثخن قلبي من ظبا لحظاته |
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جراحا أمضت بعضهن على بعض |
حذارا على قلبي بحبك قد غدا |
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جذاذا وقد آلت مبانيه للنقض |
وما أسفي أن ينعفي غير أنه |
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كناسك وافعل ما تشا فهو المرضي |
متى تجل عني ظلمة الصد والجفا |
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بصبح وفاء من وصالك مبيض |
أقول : ما ألطف قوله : وقفت له عكس اسمه ، فإن مراده بمعكوسه سائلا ، لأن المحبوب الذي تغزل فيه اسمه إلياس كما أخبرني بذلك بعض الأدباء الحلبيين.
ولم أتحقق وفاته رحمهالله.
ومن نظمه وهو ما وجدته في تاريخ عبد الله ميرو :
أأحبابنا كفوا صدودكم عنا |
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فقد بلغ الأعداء ما حاولوا منا |
وعطفا على صب إذا جن ليله |
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وأضرم فيه الشوق من نحوكم جنا |
وإن هبت الأرواح من نحو أرضكم |
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دري أيها مرت على ذلك المغنى |
وإن خطرت ذكراكم في فؤاده |
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يحن لكم شوقا على أضلع تحنى |
تبدلتمو عنا بصحبة غيرنا |
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فو الله عنكم لا بشيء تبدلنا |
وأخفيتمو عنا الوصال وطيبه |
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وأظهرتم الهجران ما هكذا كنا |
فتحتم لقول العذل أذنا سميعة |
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تصيخ ولم نفتح لعذالكم أذنا |
وأرضيتم من في جليلكم سخا |
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وأسخطتم من في قليلكم ضنا |
وسالمتمو من أضمروا لكم الأذى |
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وحاربتمو من أظهروا لكم الحسنى |
أغدر وفيكم ذمة هاشمية |
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أهجر وفيكم للوفاء تمكنا |
فيا ليتنا لم نفتتن بهواكم |
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ويا ليتنا يوما بكم ما تعرفنا |