ولا أسمع الألحان حين تهزني |
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ولو كان نوحا كنت أصغي وأطرب |
فديتكم كم ذا أهون بأرضكم |
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أهذا جزاء للذي يتغرب |
أبخل على أن ما سواك يصيخ لي |
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فهل لي مما كدّر العيش مهرب(١) |
تقلص عني كلّ ظلّ ولم أجد |
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كما كنت ألقى (٢) من أودّ وأصحب |
أذو طمع في العيش يبقى وحوله |
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مدى الدهر أفعى لا تزال وعقرب |
أجزني (٣) لأنجو (٤) بالفرار فإنه |
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وحقّك من نعماك عندي يحسب |
فلا زلت يا خير الكرام مهنأ |
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فعيشي منه الموت أشهى وأطيب |
وصانك من قد صنت في حقه دمي |
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وغيرك من ثوب المروءة يسلب |
ولم يزل الوزير ـ لا أزال الله عنه رضاه! يحمى جانبي ، إلى أن أصابتني فيه العين ، فأصابه (٥) الحين (٦) ، [فقلت في ذلك] : [بحر الطويل]
وطيّب نفسي أنه مات عند ما |
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تناهى ولم يشمت به كل حاسد |
ويحكم فيه كل من كان حاكما |
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عليه ويعطى الثأر كل معاند |
وقلت أرثيه : [بحر الطويل]
بكت لك حتى الهاطلات السواكب |
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وشقت جيوبا فيك حتى السحائب(٧) |
فكيف بمن دافعت عنه ومن به |
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أحاطت وقد بوعدت عنه المصائب |
ألا فانظروا دمعي فأكثره دم |
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ولا تذهبوا عني فإني ذاهب |
وقولوا لمن قد ظل يندب بعده |
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وفاؤك لو قامت عليك النوائب(٨) |
لعمرك ما في الأرض واف بذمّة |
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أيصمت إدريس ومثلي يخاطب |
دعوتك يا من لا أقوم بشكره |
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فهل أنت لي بعد الدعاء مجاوب |
أيا سيدا قد حال بيني وبينه |
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تراب حوت ذكراك منه الترائب(٩) |
لمن أشتكي إن جار بعدك ظالم |
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علي وإن نابت جنابي النوائب |
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(١) يصيخ لي : يصغي إليّ.
(٢) في ب : «ألفي».
(٣) في ج : «أجرني».
(٤) في ب : «أنجد».
(٥) في ب : أصابه الحين : مات.
(٦) الحين : الموت.
(٧) الهاطلات : أراد السحب الكثيرة المطر.
(٨) في ب : «النوادب».
(٩) الترائب : أراد الصدر.