أو شكت أقتل بين معترك الهوى |
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نفسي ومعترك الهوى بيميني |
ولقد وددت بأنني متحمل |
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تلك الخطا بمحاجري وجفوني |
كيف السبيل إلى الحياة ومهجتي |
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في قبضة الأشواق كالمسجون |
ما أنت إلا البدر لاح بأفقنا |
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شهرا وكان ضياؤه يهديني |
وإليكها يا شيخ دهري غادة |
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غنيت عن التحسين والتزيين |
جاءتك تعرض في الوداد كمالها |
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وإذا لحظت جمالها يكفيني |
هي بنت لحظتك التي تؤوي النهى |
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لا بنت ليلتي التي تؤويني (١) |
ما الفخر في دعوى البديهة عندها |
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الفخر قولك إنها ترضيني |
حسبي أبا العباس منك إصاخة |
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تقضي بموت عداي أو تحييني |
يا لهف نفسي كيف أبلغ مدحة |
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أضمرتها في سرّي المكنون |
فلسان حبي بالغ أقصى المدى |
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ولسان مدحي في القصور يليني |
ما الشعر يستوفي حقوقكم ولو |
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أهديت من نظمي عقود سنيني (٢) |
حلّقت أصطاد النجوم ، وإنها |
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تزهو بعقد في علاك ثمين (٣) |
فرأيت في العيّوق طبعك سيدي |
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نسرا أسفّ لعجزه شاهيني |
قد خف شعري من قصور طبيعتي |
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ولربما قد كان جدّ ركين |
يكفيك أحمد يا ابن شاهين بأن |
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أحرزت خصل السبق دون الدون |
وإذا عجزت عن الفرائض جاهدا |
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فادأب عساك تفوز بالمسنون |
هو قبلتي فلأغتدي متمسكا |
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منه بحبل في النجاة متين |
واسلم فديتك زائرا ومشرفا |
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أفدي مواطئ نعله بجبيني |
وكذلك عمري في هواك مقسّم |
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بين الدعاء الجد والتأمين (٤) |
وقال حفظه الله تعالى في ذلك : [بحر الطويل]
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(١) النهى : العقول : جمع نهية.
(٢) في ب ، ه :
ما الشعر يستوفي حقوقك لي ولو |
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أهديت في نظمي عقود سنيني |
(٣) في ب ، ه : «تزهى».
(٤) في ب : «وكذاك عمري».