وقال البحترىّ (١) :
بيضاء يعطيك القضيب قوامها |
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ويريك عينيها الغزال الأحور |
وقوله (٢) :
فحاجب الشمس أحيانا يضاحكها |
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وريّق الغيث أحيانا يباكيها |
وقوله (٣) :
وللقضيب نصيب من تثنّيها
وقوله (٤) :
أصابة برسوم رامة بعد ما |
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عرفت معارفها الصّبا والشّمال |
وقوله (٥) :
صفت مثل ما تصفو المدام خلاله |
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ورّقت كما رقّ النسيم شمائله |
وقوله (٦) :
نثرت وردها عليه الخدود
أخذه آخر فقال :
وحياء نثر الورد على الخدّ الأسيل
وقوله (٧) :
سحاب خطانى جوده وهو مسبل |
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وبحر عدانى فيضه وهو مفعم |
وقوله (٨) :
أرجن علىّ الليل وهو ممسّك |
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وصبحنا بالصّبح وهو مخلّق (٩) |
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(١) ديوانه : ٢ ـ ٢١٢.
(٢) ديوانه : ٢ ـ ٣١٩.
(٣) ديوانه : ٢ ـ ٣٢١ ، وقبله :
فى حمرة الورد شكل من تلهبها
(٤) ديوانه : ٢ ـ ١٥٨.
(٥) ديوانه : ٢ ـ ١٦٣.
(٦) ديوانه : ١ ـ ١٣٨ ، وصدره :
قطرات من السحاب وروض
(٧) ديوانه : ١ ـ ١ ـ ٢٢٦.
(٨) ديوانه : ٢ ـ ١٣٩.
(٩) أرجن ، بالتخفيف أى أثرن عليه الليل وأغرينه عليه. وفى رواية الديوان :
أرحن علينا الليل وهو ممسك |
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وصبحنا بالصبح وهو مخلق |